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Friday, June 3, 2011

Gajal




मोहब्बतों  में  अगर  को इ   रस्म  ओ  राह   नह  हो 
सकूं  तबाह  नह  हो , ज़िन्दगी  गुनाह  नह  हो 
कुत्च  एतेदा l भी  लाजिम  है  दिल लगी  के  लिएय
किसी  से  प्यार  अगर  हो  तो  बेपनाह  नह  हो 
इस  एह्तयात  से  मई  तेरे  साथ  चलता  हों
तेरी  निगाह  से  आगे  मेरी   निगाह  नह  हो 
मेरा  वजूद  है  सचाइओन  का आइना
यह  ओऊ र  बात   कह   मेरा  कोई  गवाह   नह  हो 

birth day shayri

Har raah aasan ho,
Har raah pe khushiya ho,
Har din khubsoorat ho,
Aisa hi poora jivan ho,
Yahi har din meri dua ho,
Aisa hi tumhara har janamdin ho!!!
`
Baar baar yeh din aaye,
baar baar yeh dil gaaye,
tu jiye hazaro saal,
yehi hai meri aarzoo,
Happy B’day To You !!!”
`
Ayi Hai Subhah Wo Roshani Leke,
Jaise Naye Josh Ki Nayi Kiran Chamke,
Vishwas Ki Lau Sada jalake Rakhana,
Degi andheron mein rasta diya banke
Happy Birtday

shayri

किस   किसी  की  महफी l मैं ,
किस  किसी  किस  किसी  को  किस  किया .
एक  हम  है  जिस  ने  हेर  किस  को  मिस  किया ,
और  एक   आप  हाइ  जिस  ने  हेर  मिस  को  किस  किया .
`
Dil ke dard ko dil torne wale kya jana,
Pyar ki rasmo ke yeh zamane wale kya jane,
Hoti hai kitni takliff kabar ke niche,
Yeh upar se phool charane wale kya jane.
`
Suna hai aap dosto ki jaan hai,
sms se aapki pechaan hai,
udaas chero ki aas hai,
tabhi to aap ek dost khaas hai.
`
Ek ajnabi se mujhe itna pyaar kyon hai,
Inkar karne par chahat ka ikraar kyon hai,
Use pana nahi meri taqdeer mein shayad,
Phir har mod pe usi ka intezar kyon hai.
`
Teri judai bhi hamein pyaar karti hai,
Teri yaad bahut bekrar karti hai,
Woh din jo tere sath guzare the,
Talash unko nazar bar bar karti hai.
`
Ishq ke sahare jiya nahi karte,
Gum ke piyalon ko piya nahi karte,
Kuch isse dost hain hamare,
Jinko pareshan na karo,
Toh wo hamain yaad kia nahi karte.

shayri



मेरी  बंद  आअन्खोइन  का  सच्चा  कवाब  हो  तुम ,
मेरी  तन्हियो  के  सवालो  का  जवाब  हो  तुम ,
अब  तो  दुनिया  भी  रूठ  जाये  तो   गम  न  होगा
मेरी  दुनिया , कायनात  मेरा  चाँद  हो  तुम …
`
Tum Chahe Izhaar Na Karo,
Hame To Tumhari Khamoshi Bhi Utni Hi Pyari Hai,
Tum Milo Na Milo,
Tumhari Yaadein Bhi Tum Jaisi Pyari Hai…
`
Tere Intazaar Ka Ye Alam Hai,
Tadapta Hai Dil Aakhein Bhi Nam Hai,
Teri Aarzoo Mein Jee Rahe Hai,
Warna Jeene Ki Khwahish Kam Hai..
`
Ashik Tu Soch Tera Kya Hoga Kyuki,
Hashar Ki Parvah Main Nahi Karta,
Fanah Hona Rivayat Hai Tumhari,
Ishq Naam Hai Mera Main Nahi Marta..
`
Pyar Ki Wo Misaal Banayege Hum,
Aankhen Band Karoge To Nazar Aayenge Hum.
Bhar Denge Itna Pyaar Dil Mein K,
Khud Se Pehle Yaad Aayenge Hum…

love story shayri



Chahat Ki Akhiri Had Tak
Dil Ki Poori Gehrai Se
Saara Jeevan Chahen Usko
Aur Usay Maloom Na Ho
Aksar Yun Bhi Hota Hai…
`
Toot Jate hain Bikhar Jate hain
Kaanch Ke Ghar Hain Muqaddar Apne
Ajnabi To Sada Pyar Se Milte Hain
Bhool Jate Hain To Aksar Apne…
`
Khuda Se Maangte To Muddatain Guzar Gayin
Kyun Na Main Usko Aaj Ussi Se Maang Loon…
`
Usko Rab Se Itni Baar Maanga Hai,
Ke Ab Hum Sirf Hath Uthatey Hain
To Sawal Farishtey Khud Hi Likh Lete Hain…
`
Agar Tum Aaina Dekho
To Apne Aap Se Nazarein Chura Lena
Ke Aksar Be-wafa Logon Ko
Jab Wo Aaina Dekhen To
Aankhen Chor Lagti Hain……

DOSHTI SMS





Kamyabi kabhi badi nahi hoti,
Pane wale hamesha bade hote hai.
Darar kabhi badi nahi hoti,
Bharne wale hamesha bade hote hai.
Itihaas ke har panne par likha hai,
Dosti kabhi badi nahi hoti,
Nibhane wale hamesha bade hote hai…

SHAYRI



SHAYRI ON DOSTI



Har koi pyar k liye tadapta hai….
Har koi pyar k liye rota hai….
Ae dost ye dosti sada kayam rakhna…
Kyunki sabse jyada pyar iss dosti mei he hota hai…
`
Aye mohabbat tere anjaam pe rona aaya
Jaane kyon aaj tere naam pe rona aaya
Yun to har sham umedon mein guzar jaati hai
Aaj kuch baat hai jo sham pe rona aaya
`
Tum hanso to khusi mujhe hoti hai,
Tum rodo to aankhein meri roti hain.
Mehsoos kar ke dekh lo…..
Dosti aise hi hoti hai…
`
Geet ki zaroorat mehfil mein hoti hai
Pyar ki zaroorat dil mein hoti hai
Bin dosti ke adhuri hai yeh zindagi
Kyunki dost ki zaroorat har pal mehsus hoti hai
`
Har rishtonke mukaam nahin hote…
Dil ke rishtonke koi naam nahin hote……
Paaya hai Aapko dil ki roshni se……….
Aap jaise dost kisike liye Aam nahin hote…….. .
`
Aapki dosti ki ek nazar chahiye;
Dil hai beghar use ek Ghar chahiye
Bas yun hi saath chalte raho ae dost;
Yeh Dosti hume umar bhar chahiye.
`
Dost hai to Aansuo ki bhi shaan hoti hai,
Dost na ho to Mahfhil bhi Kabristaan hoti hai,
Sara khel to dosti ka hi hai,
Warna mayyat aur barat ek saman hoti hai.
`
Zindagi me Jab Maayus hue Hum…..
To Socha k kya paaya kya khoya…….
Khone ka to hisaab na laga paaye…
Yaad raha to bas itna…ke…
Zindagi se bhi pyara..Aap jaisa Ek dost Paaya…
`
Safar lamba hai dost banate rahiye,
Dil mile na mile haath badate rahiye,
Taj na banaiye costly padega,
Har taraf Mumtaj banate rahiye.
`
Na khwabon me dekha, na nazaron me dekha,
Hazaron me ek humne tum hi ko dekha,
Gum dene wale to har pal hai yahan,
Har pal khushi dene walon me ek aap hi ko dekha…

STORY


काबुलीवाला 


री पाँच बरस की लड़की मिनी से घड़ीभर भी बोले बिना नहीं रहा जाता। एक दिन वह सवेरे-सवेरे ही बोली, "बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वह ‘काक’ को ‘कौआ’ कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।" मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने दूसरी बात छेड़ दी। "देखो, बाबूजी, भोला कहता है – आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न?" और फिर वह खेल में लग गई।
मेरा घर सड़क के किनारे है। एक दिन मिनी मेरे कमरे में खेल रही थी। अचानक वह खेल छोड़कर खिड़की के पास दौड़ी गई और बड़े ज़ोर से चिल्लाने लगी, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!"
कँधे पर मेवों की झोली लटकाए, हाथ में अँगूर की पिटारी लिए एक लंबा सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। जैसे ही वह मकान की ओर आने लगा, मिनी जान लेकर भीतर भाग गई। उसे डर लगा कि कहीं वह उसे पकड़ न ले जाए। उसके मन में यह बात बैठ गई थी कि काबुलीवाले की झोली के अंदर तलाश करने पर उस जैसे और भी 
दो-चार बच्चे मिल सकते हैं।
काबुली ने मुसकराते हुए मुझे सलाम किया। मैंने उससे कुछ सौदा खरीदा। फिर वह बोला, "बाबू साहब, आप की लड़की कहाँ गई?"
मैंने मिनी के मन से डर दूर करने के लिए उसे बुलवा लिया। काबुली ने झोली से किशमिश और बादाम निकालकर मिनी को देना चाहा पर उसने कुछ न लिया। डरकर वह मेरे घुटनों से चिपट गई। काबुली से उसका पहला परिचय इस तरह हुआ। कुछ दिन बाद, किसी ज़रुरी काम से मैं बाहर जा रहा था। देखा कि मिनी काबुली से खूब बातें कर रही है और काबुली मुसकराता हुआ सुन रहा है। मिनी की झोली बादाम-किशमिश से भरी हुई थी। मैंने काबुली को अठन्नी देते हुए कहा, "इसे यह सब क्यों दे दिया? अब मत देना।" फिर मैं बाहर चला गया।
कुछ देर तक काबुली मिनी से बातें करता रहा। जाते समय वह अठन्नी मिनी की झोली में डालता गया। जब मैं घर लौटा तो देखा कि मिनी की माँ काबुली से अठन्नी लेने के कारण उस पर खूब गुस्सा हो रही है।
काबुली प्रतिदिन आता रहा। उसने किशमिश बादाम दे-देकर मिनी के छोटे से ह्रदय पर काफ़ी अधिकार जमा लिया था। दोनों में बहुत-बहुत बातें होतीं और वे खूब हँसते। रहमत काबुली को देखते ही मेरी लड़की हँसती हुई पूछती, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली में क्या है?"
रहमत हँसता हुआ कहता, "हाथी।" फिर वह मिनी से कहता, "तुम ससुराल कब जाओगी?"
इस पर उलटे वह रहमत से पूछती, "तुम ससुराल कब जाओगे?"
रहमत अपना मोटा घूँसा तानकर कहता, "हम ससुर को मारेगा।" इस पर मिनी खूब हँसती।
हर साल सरदियों के अंत में काबुली अपने देश चला जाता। जाने से पहले वह सब लोगों से पैसा वसूल करने में लगा रहता। उसे घर-घर घूमना पड़ता, मगर फिर भी प्रतिदिन वह मिनी से एक बार मिल जाता।
एक दिन सवेरे मैं अपने कमरे में बैठा कुछ काम कर रहा था। ठीक उसी समय सड़क पर बड़े ज़ोर का शोर सुनाई दिया। देखा तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। रहमत के कुर्ते पर खून के दाग हैं और सिपाही के हाथ में खून से सना हुआ छुरा।
कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक चादर खरीदी। उसके कुछ रुपए उस पर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने इनकार कर दिया था। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई, और काबुली ने उसे छुरा मार दिया।
इतने में "काबुलीवाले, काबुलीवाले", कहती हुई मिनी घर से निकल आई। रहमत का चेहरा क्षणभर के लिए खिल उठा। मिनी ने आते ही पूछा, ‘’तुम ससुराल जाओगे?" रहमत ने हँसकर कहा, "हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।"
रहमत को लगा कि मिनी उसके उत्तर से प्रसन्न नहीं हुई। तब उसने घूँसा दिखाकर कहा, "ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हैं।"
छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई साल की सज़ा हो गई।
काबुली का ख्याल धीरे-धीरे मेरे मन से बिलकुल उतर गया और मिनी भी उसे भूल गई।
कई साल बीत गए।
आज मेरी मिनी का विवाह है। लोग आ-जा रहे हैं। मैं अपने कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत सलाम करके एक ओर खड़ा हो गया।
पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न चेहरे पर पहले जैसी खुशी। अंत में उसकी ओर ध्यान से देखकर पहचाना कि यह तो रहमत है।
मैंने पूछा, "क्यों रहमत कब आए?"
"कल ही शाम को जेल से छूटा हूँ," उसने बताया।
मैंने उससे कहा, "आज हमारे घर में एक जरुरी काम है, मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।"
वह उदास होकर जाने लगा। दरवाजे़ के पास रुककर बोला, "ज़रा बच्ची को नहीं देख सकता?"
शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। वह अब भी पहले की तरह "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले" चिल्लाती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों की उस पुरानी हँसी और बातचीत में किसी तरह की रुकावट न होगी। मैंने कहा, "आज घर में बहुत काम है। आज उससे मिलना न हो सकेगा।"
वह कुछ उदास हो गया और सलाम करके दरवाज़े से बाहर निकल गया।
मैं सोच ही रहा था कि उसे वापस बुलाऊँ। इतने मे वह स्वयं ही लौट आया और बोला, “'यह थोड़ा सा मेवा बच्ची के लिए लाया था। उसको दे दीजिएगा।“
मैने उसे पैसे देने चाहे पर उसने कहा, 'आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब! पैसे रहने दीजिए।' फिर ज़रा ठहरकर बोला, “आपकी जैसी मेरी भी एक बेटी हैं। मैं उसकी याद कर-करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ा-सा मेवा ले आया करता हूँ। मैं यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।“
उसने अपने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकला औऱ बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनो हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया। देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हें से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप हैं। हाथ में थोड़ी-सी कालिख लगाकर, कागज़ पर उसी की छाप ले ली गई थी। अपनी बेटी इस याद को छाती से लगाकर, रहमत हर साल कलकत्ते के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है।
देखकर मेरी आँखें भर आईं। सबकुछ भूलकर मैने उसी समय मिनी को बाहर बुलाया। विवाह की पूरी पोशाक और गहनें पहने मिनी शरम से सिकुड़ी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।
उसे देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में वह हँसते हुए बोला, “लल्ली! सास के घर जा रही हैं क्या?”
मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी। मारे शरम के उसका मुँह लाल हो उठा।
मिनी के चले जाने पर एक गहरी साँस भरकर रहमत ज़मीन पर बैठ गया। उसकी समझ में यह बात एकाएक स्पष्ट हो उठी कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? वह उसकी याद में खो गया। 

मैने कुछ रुपए निकालकर उसके हाथ में रख दिए और कहा, “रहमत! तुम अपनी बेटी के पास देश चले जाओ

POEM


खूनी पर्चा

अमर भूमि से प्रकट हुआ हूं, मर-मर अमर कहाऊंगा,
जब तक तुझको मिटा न लूंगा, चैन न किंचित पाऊंगा।
तुम हो जालिम दगाबाज, मक्कार, सितमगर, अय्यारे,
डाकू, चोर, गिरहकट, रहजन, जाहिल, कौमी गद्दारे,
खूंगर तोते चश्म, हरामी, नाबकार और बदकारे,
दोजख के कुत्ते खुदगर्जी, नीच जालिमों हत्यारे,
अब तेरी फरेबबाजी से रंच न दहशत खाऊंगा,
जब तक तुझको...।

तुम्हीं हिंद में बन सौदागर आए थे टुकड़े खाने,
मेरी दौलत देख देख के, लगे दिलों में ललचाने,
लगा फूट का पेड़ हिंद में अग्नी ईर्ष्या बरसाने,
राजाओं के मंत्री फोड़े, लगे फौज को भड़काने,
तेरी काली करतूतों का भंडा फोड़ कराऊंगा,
जब तक तुझको...।

हमें फरेबो जाल सिखा कर, भाई भाई लड़वाया,
सकल वस्तु पर कब्जा करके हमको ठेंगा दिखलाया,
चर्सा भर ले भूमि, भूमि भारत का चर्सा खिंचवाया,
बिन अपराध हमारे भाई को शूली पर चढ़वाया,
एक एक बलिवेदी पर अब लाखों शीश चढ़ाऊंगा,
जब तक तुझको....।

बंग-भंग कर, नन्द कुमार को किसने फांसी चढ़वाई,
किसने मारा खुदी राम और झांसी की लक्ष्मीबाई,
नाना जी की बेटी मैना किसने जिंदा जलवाई,
किसने मारा टिकेन्द्र जीत सिंह, पद्मनी, दुर्गाबाई,
अरे अधर्मी इन पापों का बदला अभी चखाऊंगा,
जब तक तुझको....।

किसने श्री रणजीत सिंह के बच्चों को कटवाया था,
शाह जफर के बेटों के सर काट उन्हें दिखलाया था,
अजनाले के कुएं में किसने भोले भाई तुपाया था,
अच्छन खां और शम्भु शुक्ल के सर रेती रेतवाया था,
इन करतूतों के बदले लंदन पर बम बरसाऊंगा,
जब तक तुझको....।

पेड़ इलाहाबाद चौक में अभी गवाही देते हैं,
खूनी दरवाजे दिल्ली के घूंट लहू पी लेते हैं,
नवाबों के ढहे दुर्ग, जो मन मसोस रो देते हैं,
गांव जलाये ये जितने लख आफताब रो लेते हैं,
उबल पड़ा है खून आज एक दम शासन पलटाऊंगा,
जब तक तुझको...।

अवध नवाबों के घर किसने रात में डाका डाला था,
वाजिद अली शाह के घर का किसने तोड़ा ताला था,
लोने सिंह रुहिया नरेश को किसने देश निकाला था,
कुंवर सिंह बरबेनी माधव राना का घर घाला था,
गाजी मौलाना के बदले तुझ पर गाज गिराऊंगा,
जब तक तुझको...।

किसने बाजी राव पेशवा गायब कहां कराया था,
बिन अपराध किसानों पर कस के गोले बरसाया था,
किला ढहाया चहलारी का राज पाल कटवाया था,
धुंध पंत तातिया हरी सिंह नलवा गर्द कराया था,
इन नर सिंहों के बदले पर नर सिंह रूप प्रगटाऊंगा,
जब तक तुझको...।

डाक्टरों से चिरंजन को जहर दिलाने वाला कौन ?
पंजाब केसरी के सर ऊपर लट्ठ चलाने वाला कौन ?
पितु के सम्मुख पुत्र रत्न की खाल खिंचाने वाला कौन ?
थूक थूक कर जमीं के ऊपर हमें चटाने वाला कौन ?
एक बूंद के बदले तेरा घट पर खून बहाऊंगा ?
जब तक तुझको...।

किसने हर दयाल, सावरकर अमरीका में घेरवाया है,
वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र से प्रिय भारत छोड़वाया है,
रास बिहारी, मानवेन्द्र और महेन्द्र सिंह को बंधवाया है,
अंडमान टापू में बंदी देशभक्त सब भेजवाया है,
अरे क्रूर ढोंगी के बच्चे तेरा वंश मिटाऊंगा,
जब तक तुझको....।

अमृतसर जलियान बाग का घाव भभकता सीने पर,
देशभक्त बलिदानों का अनुराग धधकता सीने पर,
गली नालियों का वह जिंदा रक्त उबलता सीने पर,
आंखों देखा जुल्म नक्श है क्रोध उछलता सीने पर,
दस हजार के बदले तेरे तीन करोड़ बहाऊंगा,
जब तक तुझको...

STORY


बीरबल की पैनी दृष्टि | अकबर-बीरबल के किस्से | Akbar - Birbal

बीरबल बहुत नेक दिल इंसान थे। वह सैदव दान करते रहते थे और इतना ही नहीं, बादशाह से मिलने वाले इनाम को भी ज्यादातर गरीबों और दीन-दुःखियों में बांट देते थे, परन्तु इसके बावजूद भी उनके पास धन की कोई कमी न थी। दान देने के साथ-साथ बीरबल इस बात से भी चौकन्ने रहते थे कि कपटी व्यक्ति उन्हें अपनी दीनता दिखाकर ठग न लें।
ऐसे ही अकबर बादशाह ने दरबारियों के साथ मिलकर एक योजना बनाई कि देखें कि सच्चे दीन दुःखियों की पहचान बीरबल को हो पाती है या नही। बादशाह ने अपने एक सैनिक को वेश बदलवाकर दीन-हीन अवस्था में बीरबल के पास भेजा कि अगर वह आर्थिक सहायता के रूप में बीरबल से कुछ ले आएगा, तो अकबर की ओर से उसे इनाम मिलेगा।
एक दिन जब बीरबल पूजा-पाठ करके मंदिर से आ रहे थे तो भेष बदले हुए सैनिक ने बीरबल के सामने आकर कहा, “हुजूर दीवान! मैं और मेरे आठ छोटे बच्चे हैं, जो आठ दिनों से भूखे हैं....भगवान का कहना है कि भूखों को खाना खिलाना बहुत पुण्य का कार्य है, मुझे आशा है कि आप मुझे कुछ दान देकर अवश्य ही पुण्य कमाएंगे।”
बीरबल ने उस आदमी को सिर से पांव तक देखा और एक क्षण में ही पहचान लिया कि वह ऐसा नहीं है, जैसा वह दिखावा कर रहा है।
बीरबल मन ही मन मुस्कराए और बिना कुछ बोले ही उस रास्ते पर चल पडे़ जहां से होकर एक नदी पार करनी पड़ती थी। वह व्यक्ति भी बीरबल के पीछे-पीछे चलता रहा। बीरबल ने नदी पार करने के लिए जूती उतारकर हाथ में ले ली। उस व्यक्ति ने भी अपने पैर की फटी पुरानी जूती हाथ में लेने का प्रयास किया। 
बीरबल नदी पार कर कंकरीले मार्ग आते ही दो-चार कदम चलने के बाद ही जूती पहन लेता। बीरबल यह बात भी गौर कर चुके थे कि नदी पार करते समय उसका पैर धुलने के कारण वह व्यक्ति और भी साफ-सुथरा, चिकना, मुलायम गोरी चमड़ी का दिखने लगा था इसलिए वह मुलायम पैरों से कंकरीले मार्ग पर नहीं चल सकता था।
“दीवानजी! दीन ट्टहीन की पुकार आपने सुनी नहीं?” पीछे आ रहे व्यक्ति ने कहा।
बीरबल बोले, “जो मुझे पापी बनाए मैं उसकी पुकार कैसे सुन सकता हूँ? ”
“क्या कहा? क्या आप मेरी सहायता करके पापी बन जांएगे?”
“हां, वह इसलिए कि शास्त्रों में लिखा है कि बच्चे का जन्म होने से पहले ही भगवान उसके भोजन का प्रबन्ध करते हुए उसकी मां के स्तनों में दूध दे देता है, उसके लिए भोजन की व्यव्स्था भी कर देता है। यह भी कहा जाता है कि भगवान इन्सान को भूखा उठाता है पर भूखा सुलाता नहीं है। इन सब बातों के बाद भी तुम अपने आप को आठ दिन से भूखा कह रहे हो। इन सब स्थितियों को देखते हुए यहीं समझना चाहिये कि भगवान तुमसे रूष्ट हैं और वह तुम्हें और तुम्हारे परिवार को भूखा रखना चाहते हैं लेकिन मैं उसका सेवक हूँ, अगर मैं तुम्हारा पेट भर दूं तो ईश्वर मुझ पर रूष्ट होगा ही। मैं ईश्वर के विरूध्द नहीं जा सकता, न बाबा ना! मैं तुम्हें भोजन नहीं करा सकता, क्योंकि यह सब कोई पापी ही कर सकता है।”
बीरबल का यह जबाब सुनकर वह चला गया।
उसने इस बात की बादशाह और दरबारियों को सूचना दी।
बादशाह अब यह समझ गए कि बीरबल ने उसकी चालाकी पकड़ ली है।
अगले दिन बादशाह ने बीरबल से पूछा, “बीरबल तुम्हारे धर्म-कर्म की बड़ी चर्चा है पर तुमने कल एक भूखे को निराश ही लौटा दिया, क्यों?”
“आलमपनाह! मैंने किसी भूखे को नहीं, बल्कि एक ढोंगी को लौटा दिया था और मैं यह बात भी जान गया हूँ कि वह ढोंगी आपके कहने पर मुझे बेवकूफ बनाने आया था।”
अकबर ने कहा, “बीरबल! तुमनें कैसे जाना कि यह वाकई भूखा न होकर, ढोंगी है?”
“उसके पैरों और पैरों की चप्पल देखकर। यह सच है कि उसने अच्छा भेष बनाया था, मगर उसके पैरों की चप्पल कीमती थी।”
बीरबल ने आगे कहा, “माना कि चप्पल उसे भीख में मिल सकती थी, पर उसके कोमल, मुलायम पैर तो भीख में नहीं मिले थे, इसलिए कंकड क़ी गड़न सहन न कर सके।” 
इतना कहकर बीरबल ने बताया कि किस प्रकार उसने उस मनुष्य की परीक्षा लेकर जान लिया कि उसे नंगे पैर चलने की भी आदत नहीं, वह दरिद्र नहीं बल्कि किसी अच्छे कुल का खाता कमाता पुरूष है।”
बादशाह बोले, “क्यों न हो, वह मेरा खास सैनिक है।” फिर बहुत प्रसन्न होकर बोले, “सचमुच बीरबल! माबदौलत तुमसे बहुत खुश हुए! तुम्हें धोखा देना आसान काम नहीं है।”
बादशाह के साथ साजिश में शामिल हुए सभी दरबारियों के चेहरे बुझ गए।

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कबीर के दोहे

चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह ।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥ 
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । 
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय ॥
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । 
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय । 
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय । 
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद । 
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय । 
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । 
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और । 
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर । 
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । 
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥
साँई इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भुखा जाय॥
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥
उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥
सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥
साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥ 

STORY


पत्थर के आँसू 


जब हवा में कुछ मंथर गति आ जाती है वह कुछ ठंडी हो चलती है तो उस ठंडी–ठंडी हवा में बिना दाएँ–बाएँ देखे चहचहाते पक्षी उत्साहपूर्वक अपने बसेरे की ओर उड़ान भरते हैं। और जब किसी क्षुद्र नदी के किनारे के खेतों में धूल उड़ाते हुए पशु मस्तानी चाल से घँटी बजाते अपने घरों की ओर लौट पड़ते हैं उस समय बग़ल में फ़ाइलों का पुलिन्दा दबाए, हाथ में सब्जी. का थैला लिए, लड़खड़ाते क़दमों के सहारे, अपने झुके कंधों पर दुखते हुए सिर को जैसे–तैसे लादे एक व्यक्ति तंग बाज़ारों में से घर की ओर जा रहा होता है।

'अरे एक बात तो भूल ही गई,’  क़लम ने फिर कहा। ‘उन्होंने पत्र के अंत में हम सब को भी याद किया था।'
'अरे कैसे?'  सब ने आश्चर्य से पूछा।

‘उन्होंने लिखा कि काश मैं पेपरवेट होता, मेज़–कुर्सी की तरह फ़र्नीचर होता तो आज यह दिन न देखना पड़ता। चाहें जो होता पर मैं इनसान न होता।’

‘ओह, तभी तो मुझे उठा कर अपने गालों से सहला रहे थे।’ पत्थर के पेपरवेट की ठस्स आवाज़ गीली हो उठी, उसके आँसू झिलमिला उठे।

अधपकी झब्बेदार बेतरतीब मूँछें, चेहरे पर कुछ रेखाएँ–जिन की गहराइयों में न जाने कितने अरमान, आशाएँ और अतृप्त साधें सदा के लिए दफ़न हैं और जिन्हें संसार के सबसे क्रूर कलाकार चिन्ता ने अपने कठोर हाथों से बनाया है। घिसा हुआ कोट जो कि दो साल पहले बड़ी लड़की की शादी पर बनवाया था, पहने और अपनी सूखी टाँगों पर अति प्रयोग के कारण पायजामा बन चुकी पतलून से ढँके कठपुतली की तरह निर्जीव चाल से चला जा रहा यह व्यक्ति मानव समाज का सब से दयनीय प्राणी दफ़्तर का बाबू है। नाम छोटा बाबू  - क्योंकि बड़े साहब के बाद इन्हीं का नंबर है, पर काम है बड़े साहब से भी अधिक। दफ़्तर बंद हो गया है, घर जा रहे हैं। इन के बाद दफ़्तर में क्या होता है– शायद इन्हें पता नहीं। शायद इन जैसे जो अन्य लाखों बाबू हैं, उन्हें भी पता नहीं।

दफ़्तर बंद हो गया, चौकीदार सब दरवाजे पर ताले टटोल कर देख चुका था। धूप लाजवंती वधू की तरह सिमट कर क्षितिज के पीछे जा छिपी। अंधकार चोर की तरह चुपके–से दफ़्तर के कमरों में से गुज़रता हुआ सड़क,  मैदान और खेतों पर पाले की तरह छा गया। छोटे बाबू के कमरे में घुप्प अँधेरा और सन्नाटा था। जान पड़ता था जैसे बरसों से इस कमरे में कोई नहीं आया। तभी इस सन्नाटे में किसी की क्षीण–सी आह सुनाई दी - दबी हुई ठंडी साँस भी उस के साथ मिली थी… ‘कौन है यह?’ बड़े साहब की कुर्सी ने सहानुभूति पूर्ण स्वर में पूछा। दफ़्तर बंद होने के बाद कमरे के शासन में वह कठोरता नहीं थी जो मीठी–मीठी पॉलिश की हुई बातें करने वाले बड़े साहब में थी।

‘यह मैं हूँ ।’ छोटे बाबू की मेज़ पर रखी क़लम ने पतली आवाज़ में कहा। कमरे के अन्य सदस्य बड़े साहब की कुर्सी, दवात, पेपरवेट, रद्दी की टोकरी आदि पर बच्चों का–सा स्नेह रखते थे  क्योंकि यह अभी नई ही आई थी। इस के स्थान पर जो पुरानी कलम थी उस की आकस्मिक मृत्यु एक एक्सीडेंट में हो गई थी।

‘यह मैं हूँ,  छोटे बाबू की कलम ने फिर कहा, जिसे सुन कमरे के सदस्यगण चिन्तित हो उठे। परिवार में आई नव-वधू के मुख पर आह क्यों? अभी तो उस के खेलने–खाने के दिन हैं!'

‘क्या बात है, किस बात का दुख है?' बड़े साहब की कुर्सी ने फिर पूछा।

‘कुछ नहीं, कुछ नहीं, यूँ ही मुख से आवाज़ निकल गई थी।’ छोटे बाबू की क़लम ने हँसने का बहाना करते हुए कहा। ‘नहीं जी, कुछ बात ज़रूर है। आज जब से दफ़्तर बंद हुआ है तभी से मैं तुम्हें बेचैन देख रहा हूँ। क्या बात है बोलो?’ छोटे बाबू की दवात ने ज़रा रौब जमाते हुए खोखली आवाज़ में कहा। इस रौब का असर हुआ, कमसिन क़लम सहमी हुई बोली, ‘बड़ी भयानक बात है जीजी, पर आज नहीं बताऊँगी, कल बताऊँगी।’

‘अजी मियाँ, हटाओ भी, किस चक्कर में पड़े हो?’ अचानक ही कोई भारी ठस्स आवाज़ बोली, ‘यहाँ हम अपने ही चक्कर में पड़े हैं। खुदा की कसम आज दोपहर से इतना गुस्सा आ रह है इस मरदूद बड़े साहब पर कि कुछ पूछो मत। बेचारे छोटे बाबू को  इतना डाँटा कि उन का मुँह उतर गया। अगर मैं होता न छोटे बाबू की जगह तो सब साहबी एक ही झापड़ में निकाल देता।’ कमरे में अंधकार स्वयं इधर–उधर भटक रहा था, दिखाई कहाँ से देता। हाँ, आवाज़ से मालूम होता था कि छोटे बाबू की मेज़  पर रखे पेपरवेट महाशय बोल रहे हैं।

छोटे बाबू से इस कमरे के सब निवासियों की सहानुभूति थी, बड़े साहब की हरकत पर सब को असंतोष था, पर अभी तक प्रकट किसी ने नहीं किया था। पेपरवेट की बात सुन कर  सब ने अपना–अपना असंतोष प्रकट करना आरंभ कर दिया। कमरे में शोर होने लगा। सभी अपनी–अपनी हाँक रहे थे।  ख़ूब गुलगपाड़ा मचा हुआ था। तभी सहसा दरवाजे. पर टँगे पर्दे की सरसराती हुई आवाज़ आई, ‘दुश्मन!’ और सब एकदम चुप हो गए मानो किसी ने बड़बड़ाता रेडियो एकदम बंद कर दिया हो। बाहर बरामदे में चौकीदार खटखट करता गुज़र गया। कमरे में फिर से बड़े साहब की आलोचना होने लगी। तभी खटखटाती हुई आवाज़ में टाइपराइटर ने कहा, ‘भई ग़लती तो असल में मेरी थी, छोटे बाबू ने तो अपनी तरफ़ से ठीक ही टाइप किया था। क्या बताऊँ जब से इस पक्के फ़र्श पर गिर कर चोट लगी है, मुझ से ठीक से काम नहीं होता। दर्द बहुत होता है। मुझे अफ़सोस है कि मेरे कारण बेचारे छोटे बाबू को अपमानित होना पड़ा।’

बड़े साहब की मेज़ के नीचे कुछ झन–झन की अवाज़ हुई, बड़े साहब की मेज़ ने जोर से चिल्ला कर कहा, ‘ठहरो, माँजी कुछ कर रही हैं।’

रद्दी की टोकरी इस कमरे के निवासियों में सब से बूढ़ी थी। दफ़्तर पहले किसी और स्थान पर था परन्तु जब यह नया भवन बना तब यही एक थीं जो वहाँ से बच कर यहाँ आ गई थी। इस के साथ के कई साथी गंदे नाले के रमणीय तट पर बसे कबाड़ी आश्रम में अब भगवत भजन में शेष जीवन बिता रहे हैं। कमरे के अन्य निवासी इन्हें बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे और माँजी कह कर पुकारते थे। माँजी अब बहुत वृद्ध हो गई थीं। अब और तब का सवाल था। आवाज़ भी काफ़ी मद्धम पड़ गई थी। वह छनछनाती आवाज़ में बोली, ‘क्या बताऊँ। उस दिन मुझ से ग़लती हो गई, वरना बड़े साहब तो बँधे–बँधे फिरते।’

‘वह जो उस दिन सरकारी सर्कुलर आया था, वह बड़े साहब ने जल्दी में भूल से मेरे हवाले कर दिया। चपरासी जब रद्दी को बाहर जमादार के डोल में डालने लगा तो वह सर्कुलर मैंने अपनी गोद में बच्चे की तरह छिपा लिया। अगले दिन जब उसके बारे में सारे दफ़्तर में कोहराम मचा तो मैंने निकाल कर दे दिया। जो कहीं उस दिन वह काग़ज मैं जाने देती तो बड़े साहब को भी पता चल जाता कि साहबी कितनी महँगी है। भैया, जो बुड्ढे कर देते हैं, वह आजकल की छोकरियाँ क्या करेंगी? इन्हें तो अपनी सिंगार–पटार से ही फुरसत नहीं। कोई चीज़ कहीं पड़ी है, कोई कहीं, किसी बात का ध्यान ही नहीं। बस मैं सँभालूँ। जिन्हें सब दुत्कारते हैं उन्हें मैं सँभालती हूँ। अपनी गोद में उनको जगह देती हूँ, जिन्हें दुनिया किसी काम का नहीं कहती। इस पर नाम मेरा रखा है– रद्दी की टोकरी। खैर, इसका मुझे मलाल नहीं क्योंकि इतनी उम्र तक दुनिया देखी है। यह देखा है कि जिस का भला करो उसी से बुराई मिलती है। पर छोड़ो इन बातों को। अब हमें क्या लेना–देना है? उमर ही कितनी रह गई है? खाट से चिपकी बुढ़िया हूँ अब गई तब गई की बात है और फिर…...!’ न जाने यह बुढ़िया-पुराण कब तक चलता यदि मुर्गे की बाँग भिनसार की ठंडी हवा की अँगुली पकड़े रोशनदान के रास्ते से कमरे में न घुस जाती।

आज दफ़्तर खुलते ही जो बेचैनी नज़र आई वह इस दफ़्तर के लिए नई थी। बेचारा दफ़्तर परेशान था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि आज इन सब को क्या हो गया है? बड़े साहब से ले कर चपरासी तक सब बेचैन, उदास घबराए–से क्यों हैं? उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। आख़िर हारकर उस ने आँगन में  खड़े आम के पुराने पेड़ से पूछा। शायद उसे कुछ पता हो–पर वह इन नए छोकरों की अजीब बातों से परेशान था। उसने भी अपना सिर खुजलाया जिस का मतलब था कि इस बेचैनी का कारण उसे भी पता नहीं। किस से पूछा जाए? शायद फ़ाटक को पता हो, पर तभी आँगन से कुछ बातचीत की आवाज़ें आने लगीं…  'पर आख़िर छोटे बाबू ने आत्महत्या की क्यों?’ कोई पूछ रहा था।
‘अच्छा तो यह बात थी, बहुत बुरा हुआ।’ दफ़्तर ने सोचा और बात–बात में यह खबर दीवारों, दरवाज़ों, चिकों, पर्दों से होती हुई दफ़्तर में चारों ओर फैल गई। छोटे बाबू की आकस्मिक और करूणाजनक मृत्यु के कारण शोक छाया हुआ था। प्रत्येक व्यक्ति अपनी समझ के अनुसार उनकी आत्महत्या का कारण बता रहा था। बड़े साहब कह रहे थे, ‘अगर ऐसी बात थी तो उन्होंने मुझे कहा क्यों नहीं? मैं उनकी तनख्वाह ज़रूर बढ़ा देता।’ सुनने वाले एक वही ठेकेदार साहब थे जो अपने किसी ठेके के सिलसिले में दफ़्तर में आए थे। बोले, ‘साहब यह रूपए–पैसे की तंगी बुरी चीज़ है, पर उन्होंने तो किसी से कुछ कहा ही नहीं, मुझे ही कह देते तो दो–चार हज़ार का इंतजाम तो मैं ही कर देता।’

‘कहो भाई, क्या ख़बर लाए?’ बड़े साहब ने फ़ाटक में से आते हुए एक आदमी से पूछा। ‘बहुत बुरा हाल है, बेचारी छोटे बाबू की वाइफ़ ने तो रो–रो कर बुरा हाल कर रखा है, घर में जमा पूँजी भी नहीं है जो क्रिया–कर्म का प्रबंध किया जाए। यह चूड़ियाँ दी हैं, बेचने के लिए!’ उस आदमी ने कहा।

‘अजी, अब रोने–धोने से क्या होता है? उम्र भर तो छोटे बाबू के कान खाती रही– यह ला दो, वह ला दो और सच तो यह है…’ पास खड़े एक अन्य व्यक्ति ने कहा, पर बीच में ही आने वाले व्यक्ति ने टोका।

‘पता नहीं साहब, वह तो मुझसे कह रही थीं कि इतने सीधे आदमी थे कि ख़ुद ही सब सामान ला दिया करते थे, मुझे कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं होती थी। खैर, जो भी हो अब बेचारी का दुख नहीं देखा जाता, आज दफ़्तर तो बंद ही रहेगा, हम सब को वहीं जाना चाहिए।’

दफ़्तर बंद हो गया, बड़े साहब कार में बैठ कर घर चले गए। ठेकेदार भी कुछ आवश्यक कार्य के लिए उन के साथ ही गया। बड़े साहब जाते हुए चपरासियों और चौकीदारों को सख्त ताक़ीद कर गए कि छोटे बाबू के घर वे ज़रूर जाएँ। चपरासियों ने कमरों में ताले लगाए और छोटे बाबू के घर की ओर चल पड़े। दफ़्तर में फिर एक बार शोकपूर्ण सन्नाटा छा गया।

‘बहुत ही बुरा हुआ', सब से पहले छोटे बाबू की कुर्सी ने दुख से रूँधे गले से कहा।

‘यह और भी बुरा हुआ कि उन्होंने अपनी मदद के लिए किसी से कुछ कहा भी नहीं।’ इस पर कमरे के सब छोटे–बड़े सदस्य छोटे बाबू के प्रति अपना शोक प्रकट करने लगे।

‘यह जो कहा जा रहा है कि उन्होंने किसी से मदद नहीं माँगी, यह ग़लत है।’ छोटे बाबू की क़लम ने दवात से कहा, ‘कल जो बात मैं कहते–कहते रूक गई थी, वह यही थी।’

‘अरे भई, कुछ सुनते भी हो?’ दवात ने ऊँची आवाज़ में कमरे वालों को बातें करने से रोका, ‘ज़रा सुनो तो यह क़लम क्या कह रही है? हाँ जी, अब कहो असली बात क्या है?’

सब चुप हो गए, पर अब कमसिन क़लम शर्माने लगी। दवात ने ढाढ़स बँधाया कि सब अपने ही हैं, शर्माने की क्या बात है, तुम बेखटके कहो।

क़लम ने धीरे स्वर में कहना आरंभ किया, ‘यह बात ग़लत है कि छोटे बाबू ने किसी से मदद नहीं माँगी।
उन्होंने बड़े साहब से तनख्वाह बढाने के लिए कितनी ही बार कहा था पर बड़े साहब ने हर बार उन के काम में ज़बरदस्ती कोई न कोई कमी निकाल कर इस बात को टाल दिया। कल जब वे घर से दफ़्तर आए थे तो आप सब ने देखा होगा कि उनका चेहरा उतरा हुआ था। बात यह थी कि उनकी पत्नी ने उन्हें काफी खरी–खोटी सुनाई थी कि वे वक्त पर कोई चीज़ ला कर नहीं देते। मुझे भी कोई ज़ेवर–पत्ता बनवा के नहीं दिया , इत्यादि। इसी सब झगड़े में देर हो गई, उधर आते ही बड़े साहब ने डाँट सुना दी, फिर दोपहर को भी जो बुरी डाँट उन पर पड़ी थी वह तो आप सबने सुनी ही है। इधर उन पर क़र्ज भी काफ़ी हो गया था। तक़ाजा दिनों-दिन सख्त होता जा रहा था। पत्नी की फ़रमाइश, लंबे–चौड़े परिवार का ख़र्च, साहूकारों के तक़ादे। यह सब इस छोटी–सी तनख्वाह में कैसे पूरे हो पाते? उन का दिल तो पहले ही टूट गया था, पर कल पत्नी की फटकार और बड़े साहब की डाँट ने उस टूटे हुए दिल को पीस डाला। वह निराश हो गए और सब से अधिक धक्का इस बात से लगा कि जब उन्होंने अपनों के आगे गिड़गिड़ा कर मदद के लिए हाथ पसारा तो उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया।’

‘पर तुम्हें यह सब पता कैसे लगा?’ बड़े साहब की कुर्सी ने आगे खिसकते हुए पूछा।

‘बात यह हुई कि कल शाम दफ़्तर बंद होने से पहले ये सब बातें उन्होंने एक पत्र में लिखीं, पर न जाने फिर क्या सोच कर वह पत्र फाड़ कर फेंक दिया। मैंने तो सब लिखी ही थीं, इसलिए मुझे बातें याद रहीं।’

‘जी तो चाहता है कि इनसान की गरदन रेत दूँ।’ चाकू ने तीखी आवाज़ में कहा। उस पर क्रोध की धार लगी हुई थी।

‘अरे एक बात तो भूल ही गई,’  क़लम ने फिर कहा। ‘उन्होंने पत्र के अंत में हम सब को भी याद किया था।’
‘अरे कैसे?’ सब ने आश्चर्य से पूछा।

‘उन्होंने लिखा कि काश मैं पेपरवेट होता, मेज़–कुर्सी की तरह फ़र्नीचर होता तो आज यह दिन न देखना पड़ता। चाहें जो होता पर मैं इनसान न होता।’
‘ओह, तभी तो मुझे उठा कर अपने गालों से सहला रहे थे।’ पत्थर के पेपरवेट की ठस्स आवाज़ गीली हो उठी, उसके आँसू झिलमिला उठे।

Secret of The Mumbai


Secret of The Mumbai

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SOME - POEM




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oks fldM+rh gqbZ] mlls nwj gks tk;sA
fQj oks vkf’kd viuk uke d`".kk crk,s
bu ckrksa ij mls dksbZ ;dhu u vk;s]
fQj ,dk,d nkSM+rh gqbZ mlds ikl vk tk;s]
,d iy ds fy;s ekuksa lUukVk lk Nk tk;s]
tc jk/kk d`".kk ds ckgksa is vk tk;s
fQj nksuksa mlh pkan ls fuxkgs fVdk;sa]
fQj nksuksa tUur esa [kks tk,]
 vkSj dqN gh nsj esa Hkksj gks tk;sA
oks d`".kk jkf/kdk dh ckgkas ls /khjs ls tk;s
tc jkf/kdk dk liuk VwVs rks lqcg gks tk;sA

lius
vka[kksa esa lius fy, [kM+k Fkk leqUnj ds fdukjs]
vk;k Fkk fdlh }hi ls ,d frudk ds lgkjs]
mlds fny esa vkl Fkh] dqN ikus dh I;kl Fkh]
fny esa dqN nck;k Fkk] vka[kksa esa dqN Nqik;k Fkk]
dqN mlds fny esa lius Fks]
mldks yxrk gj txg vius Fks]
vk;k gok dk >ksadk] mldks gqvk dqN /kks[kk]
lius frudks esa fc[kj x;s] vius mlls eqdj x;s]
dqN gqvk gok gokbZ] Nk xbZ dkyh rUgkbZA







vkf’k;kuk

dgha nwj vkf’k;kuksa esa ?kj gks]
ftUnxh dk I;kjk lQj gks]
iafUN;ksa dh vkoktksa dk ’kgj gks]
xquxqukrs >juksa dk dgj gksA
tgka gok;sa Hkh xk;sa I;kj ds rjkus]
tgka feyrs gks nks nksLr csxkus]
,sls vkf’k;kuksa eas ?kj gks]
ftUnxh lk I;kjk lQj gks]
tgka veqvk dh Mkyh esa >wys pjokgsa]
tgka veu vkSj pSu dh tk,a nks jkgsa]
dgha nwj vkf’k;kuksa esa ?kj gks]
ftUnxh dk I;kjk lQj gksA




tquwu
,d fny esa tks fpaxkjh mBh Fkh]
og vc HkM+dus yxh gSA
tks vk’kk dh fdj.k txh Fkh]
og vc fudyus yxh gSA
tks fny dks jksd j[kh Fkh]
tksM+h lh teh gqbZ cQZ
og vc fi?kyus yxh gSA
vc tquwu dk rwQku lk mBus yxk gS
mls jksdus dh fgEer ugha gS D;ksafd
esjk ne vc ?kqVus yxk gSA
esjs vUnj tks nnZ vkSj Mj dk nkeu Fkk]
og vc u tkus D;wa NwVus yxk gSA
vkRefo’okl vkSj tquwu ds xqy QwVus yxs gSaa
vc esjs dne eafty dh rjQ c<+us yxs gSaA
lc fjLrs ukrs rksM+ bl igkM+ ij p<+us yxs gSaA



jkLrs
jkLrs u;s gSa] eaftys ubZ gSa]
jguqesa u;s] okLrs u;s gSaA
flyflys u;s gS ;s efgQysa ubZ gS]
;s vkljk u;s gSaA
;s ftanxh rks lgh gS] ij eqf’dys Hkh dbZ gSA
bu gokvksa ls iwNks] bu ?kVkvksa ls iwNks
budh eaftysa dbZ gSA
ij ;s :drh ugha gS ;s D;w >qdrh ugha gSA
ir>M+ ls I;kj djrh gSA clUrh ls btgkj djrh gSA
;s gok;sa Hkh] D;k fuxkgsa gSa] dSls ,s vkye gS]
bd fj’rk bu gokvksa ds tSls] ljljkrh ;s gok;sa]
D;k :[k gS budk cl ;gh lans’k cgrs tkuk cgrs tkuk
fdlh is er >qduk vkSj
eafty ds jkLrksa ij er :dukA





gok,a
ns[kks bu eLr gokvksa dks] mu mMrh gqbZ ?kVkvksa dks
budh Hkh eLr dgkuh gS] pyrh fQjrh D;k dgkuh gS A
buds Hkh rks dqN lius gSa] ;s ufn;k ;s ioZr lc vius gSa A
budk Hkh dke ogha gS] bl tUur esa tke ogh gS A
iaNh dks lSj djkrh gS] viuh gh /kqu esa xkrh gS A
ns[kksa bu eLr gokvksa dks] mu mMrh gqbZ ?kVkvksa dks A
buesa rqe [kks tkvks u] FkksMk gh lks tkvks u A
fQj rqe ns[kksxs I;kj] liuk] lc yxus rqedks vius A



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